Monday, 19 May 2014

वो सीढ़ियों की आहट


याद है वो दिन! मुझे याद है
उस ठिठुरते नंगे रात को
तुम आई थी दौड़ती हुई
फिसली भी थी सीढ़ियों पे
मामूली सी खराश थी गले में
मैं छतो पे ओस पी रहा था
डॉट लगाई थी बड़ी जोर से
पिलाई थी गरमाहट अलाव की

आज भींग गया हुँ फिर से
और सर्द भी वही है
मोतिया बरस रही है बूंदो में
बालो की मालिश करा चूका हूँ
हा सुबह बर्फ भी पिया था
पर गला सूझा नहीं है अब तक
क्योकि सीढ़ियों पे अब आहट नहीं आती

Sunday, 18 May 2014

साथ लिया जाऊँगा


मैं हिमालय हूँ
मेरी गहराईयों में खो जाओगे
मैं सागर हूँ
दिखाऊँगा मेरी उँचाई क्या है
मैं पवन हूँ
क्या तुम मुझे कैद कर पाओगे
मैं किरण हूँ
बह चला हूँ अपनी वेग से
मैं लहर हूँ
मेरी संगीत से क्यों डरते हो
मैं नदी हूँ
तुम्हे भी साथ लिया जाऊँगा 

Wednesday, 7 May 2014

जब इस बार 'घर' जाऊँगा


जब इस बार 'घर' जाऊँगा
पीनी है हरियाली जी भर
भर लाऊँगा खुशबू जेबो में
जो केवल यही मिलती है

जब इस बार घर जाऊँगा
डालूँगा बिस्तर जहाँ वजूद मेरा
माँ के वृंदावन आँचल में
जहा रहती है बहार सदा

जब इस बार घर जाऊँगा
मिलूँगा उन दोस्त गलियो से
जो तकती रहती है राह
पेड़ो संग अपनी बूढ़ी आँखो से

जब इस बार घर जाऊँगा
चाहत है फिर सीढ़ी बनाने की
अपने मुहल्लों के छप्परों को
काकी के डाँट वाले प्यार की

जब इस बार घर जाऊँगा
बदला होगा मंज़र जरा सा
लगी होगी नजर यही जैसी
पर बचा होगा 'प्यार' पहले सा

Tuesday, 6 May 2014

सावन और उनकी याद


लौटा है सावन जानता हूँ
हर बार की तरह
लौट जाएगा पर क्या हुआ
उनकी याद लाया है यही कम है

पिछले जब आए थे
सुना रह गया था बादल का घर
बुझे थे रंग तेरे खलियानो के
इस बार अच्छी खेती कर जाना

तू भी तो प्यासा था इक छुअन को
लिपट न पाया उनकी बाहो से
केशुओं से टपकने का अधूरा सपना
इस बार दोनो ही टिस निकालेंगे

कोहरे धुलो के बंजर इश्क में
सने हुए है चीरते किरणों से
वो महक दे दो सोंधी सी
जो आ जाती है तेरे आने से

लेते आना छमछम की संगीत
वो डरते है अपने ही आहत से
सखी बहार भी तेरी आ जाएगी
हमारे बागो में भी तेरे आने से


Monday, 5 May 2014

जीत


अब गिरने दो मुझें 
जिसका वादा था वो चला गया
बहुत दूर नही, पास ही है
गिरते देखने की चाहत में

मैं गिरूँगा पर उसके कदमो में नहीं
पर जीत तो उसकी ही होगी
और मेरी भी
कभी उसकी जीत भी मेरी हुआ करती थी।

क्यूँ …


मैं अंजान था तेरी अंतिम  इरादों से

शायद किसी उलझन में, पर
समझ ना पाया तेरी दुविधा को
कि किस हाल मे जी रही है तु

एक आवाज़ तो दिया होता

इक की होती आख़िरी कोशिश
चलो मैं  तो दूर था तुमसे
कुछ तो 'इंसान' होंगे ही शायद

नादान खुद को क्यू सज़ा दे दी

इसके हकदार तो वो थे
हाँ मैं नही समझ सकता
तेरी अंतिम सासों की दशा को

मैं जानता हूँ तु इतनी कमज़ोर न थीं
जो लड़ ना सके
ये तो उनकी कायरता है
आखिर कब तक लेंगे उधार की साँसे
क़र्ज़ तो उन्हे चुकाना होगा

बस आखिर मेँ 
इतना तो पूछ लेती, क्या कसूर था तेरा?

आखिरी चिराग

                                                    

शोर छुपता नहीं, 
जो झांक रहा है अंदर मेरे 
तभी शायद 
खामोश रात रास आने लगी।  

छुपा दो इस चाँदनी को भी, 
पर पूरा नहीं, 
डाल दो उस टूटे संदूक में 
थोड़ी सी तो रौशनी आती रहें।  

इक बार और जीने की 
चाहत टिमटिमाती हैं, 
पर डरता हूँ 
पुराने पन्नों की खुशबुओ से।   

यही सुखद है, भींगी नही
छोरे नही जेवर अपने, 
थक न जाये कही 
हवाओं की लहरों से, 

मुरझाया ये आखिरी चिराग भी, 
देखते है कब तक थमता हैं।