Monday, 5 May 2014

आखिरी चिराग

                                                    

शोर छुपता नहीं, 
जो झांक रहा है अंदर मेरे 
तभी शायद 
खामोश रात रास आने लगी।  

छुपा दो इस चाँदनी को भी, 
पर पूरा नहीं, 
डाल दो उस टूटे संदूक में 
थोड़ी सी तो रौशनी आती रहें।  

इक बार और जीने की 
चाहत टिमटिमाती हैं, 
पर डरता हूँ 
पुराने पन्नों की खुशबुओ से।   

यही सुखद है, भींगी नही
छोरे नही जेवर अपने, 
थक न जाये कही 
हवाओं की लहरों से, 

मुरझाया ये आखिरी चिराग भी, 
देखते है कब तक थमता हैं।  
  



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