मैं अंजान था तेरी अंतिम इरादों से
शायद किसी उलझन में, पर
समझ ना पाया तेरी दुविधा को
कि किस हाल मे जी रही है तु
एक आवाज़ तो दिया होता
इक की होती आख़िरी कोशिश
चलो मैं तो दूर था तुमसे
कुछ तो 'इंसान' होंगे ही शायद
नादान खुद को क्यू सज़ा दे दी
इसके हकदार तो वो थे
हाँ मैं नही समझ सकता
तेरी अंतिम सासों की दशा को
मैं जानता हूँ तु इतनी कमज़ोर न थीं
जो लड़ ना सके
ये तो उनकी कायरता है
आखिर कब तक लेंगे उधार की साँसे
क़र्ज़ तो उन्हे चुकाना होगा
बस आखिर मेँ
इतना तो पूछ लेती, क्या कसूर था तेरा?
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